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इन सब बातों का रखेंगे ध्यान तो किसान सरसों की फसल से पाऐंगे शानदार उत्पादन

इन सब बातों का रखेंगे ध्यान तो किसान सरसों की फसल से पाऐंगे शानदार उत्पादन

भारत में सरसों का तेल तकरीबन सभी घरों में खाद्य तेल के तौर पर काम आती है। भारत में सरसों की खेती मुख्य तोर पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा , महाराष्ट्र , राजस्‍ थान और मध्यप्रदेश में की जाती है। सरसों की खेती की मुख्य बात यह है , कि यह सिंचित एवं असिंचित , दोनों ही प्रकार के खेतों में उगाई जा सकती है। सोयाबीन तथा पाम के पश्चात सरसों विश्व में तीसरी सर्वाधिक महत्तवपूर्ण तिलहन फसल है। मुख्य रूप से सरसों के तेल के साथ - साथ सरसों के पत्ते का इस्तेमाल सब्जी तैयार करने में होता हैं। सरसों की खली भी बनती है , जो कि दुधारू मवेशियों को खिलाने के काम में आती है। घरेलू बाजार के साथ - साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी सरसों की मांग में बढ़ोतरी आने की वजह से किसानों को इस वर्ष सरसों का काफी शानदार भाव मिला है। वहीं , केंद्र सरकार ने इसके न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी इजाफा कर दिया है।  

सरसों की खेती करने से पूर्व इन बातों का रखें विशेष ध्यान

सरसों की खेती करने से पूर्व कुछ चीजों को ध्यान में रखना पड़ता है , जिससे हमें फसल की उचित पैदावार मिल सके , वो हैं।  

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सरसों की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

सरसों भारत की प्रमुख तिलहन फसल में से एक है। रबी की फसल होने की वजह से मध्य सितंबर से मध्य अक्टूबर तक सरसों की बिजाई कर देनी चाहिए। सरसों की फसल का शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए 15 से 25 डिग्री तापमान की जरूरत होती है।

सरसों की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

सामान्यतः सरसों की खेती हर तरह की मृदा में की जा सकती है। परंतु , सरसों की शानदार पैदावार पाने के लिए एकसार और बेहतर जल निकासी वाली बलुई दोमट मृदा सबसे उपयुक्त रहती है। परंतु , यह लवणीय एवं बंजर भूमि नहीं होनी चाहिए।

सरसों के खेत की तैयारी कैसे करें

सरसों की खेती में भुरभुरी मृदा की आवश्यकता होती है , खेत को सबसे पहले मृदा पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए। इसके पश्चात दो से तीन जुताई देशी हल अथवाकल्टीवेटरके जरिए से करना चाहिए। इसकी जुताई करने के बाद खेत में नमी रखने के लिए व खेत समतल करने के लिए पाटा लगाना अति आवश्यक हैं। पाटा लगाने से सिंचाई करने में समय व पानी दोनों की बचत होती है।

सरसों की बिजाई हेतु बीज की मात्रा

आपकी जानकारी के लिए बतादें , कि जिन खेतों में सिंचाई के पर्याप्त साधन मौजूद हो वहां सरसों की फसल की बुवाई के लिए 5 से 6 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए। जिन खेतों में सिंचाई के पर्याप्त साधन उपलब्ध ना हो वहां सरसों की बीज की मात्रा अलग हो सकती है। बतादें , कि बीज की मात्रा फसल की किस्म के आधार पर निर्भर करती है। यदि फसल की समयावधि ज्यादा दिनों की है , तो बीज की मात्रा कम लगेगी। यदि फसल कम समय की है तो बीज की मात्रा ज्यादा लगेगी।

सरसों की उन्नत किस्में

सरसों की खेती के लिए उसकी उन्नत किस्मों की जानकारी होनी भी जरूरी है , जिससे ज्यादा पैदावार हांसिल की जा सकें। सरसों की विभिन्न प्रकार की किस्में सिंचित क्षेत्र व असिंचित क्षेत्र के लिए भिन्न - भिन्न हैं।  

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विभिन्न परिस्थितियों के लिए सरसों की उन्नत किस्में

  1. आर . एच (RH) 30 : सिंचित क्षेत्र व असिंचित क्षेत्र दोनो ही स्थितियों में गेहूं , चना एवं जौ के साथ बुवाई करने के लिए अच्छी होती हैं।
  2. टी 59 ( वरूणा ) : यह किस्म उन क्षेत्रों में अच्छी पैदावार प्रदान करती हैं जहां सिंचाई के साधन की उपलब्धता नहीं होती हैं। इसकी उपज असिंचित क्षेत्र में 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके दाने में तेल की मात्रा 36 प्रतिशत होती है।
  3. पूसा बोल्ड : आशीर्वाद ( आर . के ) : यह किस्म देर से बुवाई के लिए (25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक ) उपयुक्त होती है।
  4. एन . आर . सी . एच . बी . (NRC HB) 101 : ये किस्म उन क्षेत्रों में अच्छी पैदावार प्रदान करती हैं जहां सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था होती हैं। ये किस्म 20 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक का उत्पादन प्रदान करती हैं।

सरसों की फसल में सिंचाई कब और कैसे करें  

सरसों की फसल में पहली सिंचाई 25 से 30 दिन पर करनी चाहिए और दूसरी सिंचाई फलियाें में दाने भरने की अवस्था में करनी चाहिए। अगर जाड़े में वर्षा हो जाती है , तो दूसरी सिंचाई न भी करें तो भी अच्छी पैदावार हांसिल की जा सकती है। ख्याल रहे सरसों में फूल आने के समय खेत की सिंचाई नहीं करनी चाहिए।सरसों की फसल में सिंचाई सामान्यत : पट्टी विधि के माध्यम से करनी चाहिए। खेत के आकार के मुताबिक 4 से 6 मीटर चौड़ी पट्टी बनाकर सिंचाई करनी चाहिए। इस विधि से सिंचाई करने से पानी का वितरण संपूर्ण खेत में समान तौर पर होता है।

सरसों की खेती में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल   

आपकी जानकारी के लिए बतादें , कि जिन खेतों में सिंचाई के पर्याप्त साधन मौजूद ना हों वहां के लिए 6 से 12 टन सड़े हुए गोबर की खाद , 160 से 170 किलोग्राम यूरिया , 250 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट ,50 किलोग्राम म्यूरेट व पोटाश और 200 किलोग्राम जिप्सम बुवाई से पहले खेत में मिलाना उपयुक्त होता है। यूरिया की आधी मात्रा बिजाई के समय और बची हुई आधी मात्रा पहली सिंचाई के उपरांत खेत में मिला दें। जिन खेतों में सिंचाई के उपयुक्त साधन ना हो वहां के लिए वर्षा से पूर्व 4 से 5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद , 85 से 90 किलोग्राम यूरिया , 125 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट , 33 किलोग्राम म्यूरेट व पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करते समय खेत में डाल दें।

सरसों की खेती में खरपतवार का नियंत्रण

सरसों की खेती में बुवाई के 15 से 20 दिन के समयांतराल में खेत से घने पौधों को बाहर निकाल देना चाहिए। इसके साथ ही उनका आपसी फासला 15 सेंटीमीटर कर देना चाहिए। खरपतवार खत्म करने के लिए सरसों के खेत में निराई और गुड़ाई सिंचाई करने से पूर्व जरूर करनी चाहिए। खरपतवार नष्ट ना होने की स्थिति में दूसरी सिंचाई के पश्चात भी निराई व गुड़ाई करनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार का नियंत्रण करने के लिए बुवाई के शीघ्र पश्चात 2 से 3 दिन के अंदर पेंडीमेथालीन 30 ईसी रसायन की 3.3 लीटर मात्रा को 600 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से स्प्रे करना चाहिए।भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय ट्रैक्टरों की जानकारी के लिए यहां क्लिक करें।

सरसों की फसल कटाई एवं भंडारण

सरसों की फसल में जब 75% फलियां सुनहरे रंग की हो जाए , तब फसल को मशीन से अथवा हाथ से काटकर , सुखाकर अथवा मड़ाई करके बीज को अलग कर लेना चाहिए। सरसों के बीज जब बेहतरीन तरीके से सूख जाएं तभी उनका भंडारण करना चाहिये।

सरसों की खेती से उत्पादन

जिन क्षेत्रों में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है वहां इसकी पैदावार 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकती है तथा जिन क्षेत्रों में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हैं। वहां 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक का उत्पादन हांसिल हो सकता हैं।

सरसों का बाजार भाव और कमाई

केंद्र सरकार ने इस साल सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में 150 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि कर 5200 रुपये प्रति क्विंटल का भाव तय किया है। पिछले वर्ष सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5050 रुपये था। सरसों की बढ़ती मांग और उपलब्धता में कमी के कारण इस बार खुले बाजारों में न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी ज्यादा भाव मिल रहे हैं। खुले बाजारों में सरसों का 6500 से 9500 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिल रहा है। किसान अपनी सरसों की फसल भारत की प्रमुख मंडियों में जहां कीमत ज्यादा हो , वहां अपनी फसल विक्रय कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सीधे तेल प्रोसेसिंग कंपनियों से संम्पर्क करके सीधे कंपनियों को भी बेचा जा सकता है। वहीं किसान खुले बाज़ार में व्यापारियों को भी अपनी फसल बेच सकते हैं। बतादें , कि इस साल सरसों की फसल ने किसानों को अच्छे दाम दिलाए हैं। किसानों को आगे भी सरसों के अच्छे भाव मिलने की आशा है।

सरसों की फसल को एमएसपी पर खरीदने की तैयारी पूरी करने का निर्देश

सरसों की फसल को एमएसपी पर खरीदने की तैयारी पूरी करने का निर्देश

केंद्र सरकार इस बार एमएसपी पर सरसों की खरीद करेगी। सरकार ने इसकी संपूर्ण तैयारियां कर ली हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने बुधवार को इस बात की जानकारी दी है। भारत में इस बार सरसों की काफी शानदार पैदावार हुई है, जिस पर केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने किसानों का आभार प्रकट किया है। 

कृषि मंत्री का कहना है, कि इस साल किसानों ने भारी मात्रा में सरसों की पैदावार की है। इसके लिए समस्त किसान भाई-बहन बधाई के पात्र हैं। मुंडा ने कहा कि उन्होंने संबंधित विभागों को सरसों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीदने के लिए कहा है। ताकि किसानों को उपज बेचने में कोई कठिनाई न आए और उन्हें उपज की समुचित धनराशि मिल सके।

MSP पर सरसों की खरीद की जाएगी 

मीडिया को एक ब्रीफिंग में मुंडा ने आगे बताया कि सरकार ने रबी फसलों के विपणन सीजन के दौरान मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस) के तहत सरसों की खरीद की तैयारी की है। उन्होंने कहा, "सरकार के लिए किसानों का हित सर्वोपरि है। अगर सरसों की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे जाती हैं, तो सरकार किसानों से एमएसपी पर सरसों खरीदेगी। उन्होंने बताया कि इसके लिए आवश्यक व्यवस्थाएं भी की गई हैं।"

खरीद की सारी तैयारियां पूर्ण करने का निर्देश दिया है 

उन्होंने कहा कि रबी विपणन सीजन (आरएमएस) के लिए केंद्रीय नोडल एजेंसियों को पहले से ही पीएसएस के तहत सरसों की खरीद के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया गया है, ताकि किसानों को किसी भी तरह की कठिनाई का सामना न करना पड़े। उन्होंने कहा, "रबी विपणन सीजन-2023 के दौरान गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और असम राज्यों से पीएसएस के तहत खरीद की मंजूरी 28.24 एलएमटी सरसों थी।"

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कृषकों को अधिक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा 

आरएमएस-2024 के लिए भी सभी सरसों उत्पादक राज्यों को सूचित किया गया है, कि यदि राज्य में सरसों का वर्तमान बाजार मूल्य अधिसूचित एमएसपी से कम है, तो पीएसएस के तहत सरसों की खरीद का प्रस्ताव समय रहते भेजें। उन्होंने कहा कि आरएमएस-2024 के लिए सरसों का एमएसपी 5,650 रुपये प्रति क्विंटल है। उन्होंने कहा कि सरकार का प्रयास है, कि किसानों को उनकी उपज का सही भाव मिल सके और उन्हें अपने उत्पाद को बेचने में कोई समस्या न आए।

इस राज्य सरकार ने सरसों की खेती करने वाले किसानों के हित में उठाया महत्वपूर्ण कदम

इस राज्य सरकार ने सरसों की खेती करने वाले किसानों के हित में उठाया महत्वपूर्ण कदम

सरसों की खेती करने वाले हरियाणा के किसानों के लिए एक खुशखबरी है। राज्य के मुख्य सचिव संजीव कौशल का कहना है, कि रबी सीजन के दौरान सरकार किसानों की सरसों, चना, सूरजमुखी व समर मूंग की निर्धारित एमएसपी पर खरीद करेगी। साथ ही, मार्च से 5 जनपदों में उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से सूरजमुखी तेल की आपूर्ति की जाएगी।

मुख्य सचिव ने फसलों के उत्पादन को लेकर क्या कहा है ?

एक बैठक में मुख्य सचिव ने कहा कि इस सीजन में 50 हजार 800 मीट्रिक टन सूरजमुखी, 14 लाख 14 हजार 710 मीट्रिक टन सरसों, 26 हजार 320 मीट्रिक टन चना और 33 हजार 600 मीट्रिक टन समर मूंग की पैदावार होने की उम्मीद है। मुख्य सचिव ने बताया कि हरियाणा राज्य वेयरहाउसिंग कारपोरेशन, खाद्य एवं आपूर्ति विभाग व हैफेड मंडियों में सरसों, समर मूंग, चना और सूरजमुखी की खरीद प्रारंभ करने के लिए तैयारियां शुरू करने के आदेश भी दिए हैं।

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सरकार कब से सरसों की खरीद चालू करेगी 

सरकार मार्च के अंतिम सप्ताह में 5 हजार 650 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से सरसों की खरीद चालू करेगी। इसी प्रकार 5 हजार 440 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से किसानों का चना खरीदा जाएगा। 15 मई से 8 हजार 558 रुपये प्रति क्विंटल की दर से समर मूंग की खरीद होगी। इसी प्रकार एक से 15 जून तक 6760 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से सूरजमुखी की खरीद होगी।

लापहरवाही करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा 

मुख्य सचिव ने खरीद प्रक्रिया के दौरान किसानों की सुविधा के लिए अधिकारियों को समस्त आवश्यक प्रबंध करने एवं खरीदी गई पैदावार का तीन दिन के अंदर भुगतान करने के लिए कहा है। साथ ही, उन्होंने कहा कि काम में लापरवाही करने वालों को बिल्कुल बख्शा नहीं जाएगा। इस फैसले से किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य भी मिल जाएगा।

Mungfali Ki Kheti: मूंगफली की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

Mungfali Ki Kheti: मूंगफली की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आज हम आपको इस लेख में मूंगफली की खेती के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाले हैं। परंपरागत फसलों के तुलनात्मक मूंगफली को ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल माना जाता है। यदि किसान मूंगफली की खेती वैज्ञानिक ढंग से करते हैं, तो वह इस फसल से ज्यादा उत्पादन उठाकर बेहतरीन मुनाफा कमा सकते हैं। बतादें, कि खरीफ सीजन के फसल चक्र में मूंगफली की खेती का नाम सर्वप्रथम आता है। भारत के कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में प्रमुख तौर पर मूंगफली की खेती की जाती है। 

मूंगफली की खेती

यदि आप मूंगफली का उत्पादन करके बेहतरीन पैदावार से ज्यादा मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, तो मूंगफली की खेती कब और कैसे करनी चाहिए,
मूंगफली की बुवाई का समुचित समय क्या है? मूंगफली की उन्नत किस्म कौन सी है? मूंगफली हेतु बेहतर खाद व उर्वरक आदि से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी आपको होनी ही चाहिए। तब ही आप मूंगफली की उन्नत खेती कर सकेंगे। मूंगफली की उन्नत खेती करने के इच्छुक किसानों को इस लेख को आखिर तक अवश्य होंगे। 

मूंगफली की खेती किस इलाके में की जाती है

मूंगफली को तिलहनी फसलों की श्रेणी में रखा गया है, जो ऊष्णकटबंधीय इलाकों में बड़ी ही सुगमता से उत्पादित की जा सकती हैं। जो किसान मूंगफली की खेती करने की योजना बना रहे हैं, उनको इस लेख को ध्यानपूर्वक पूरा पढ़ना चाहिए। इस लेख में किसानों को मूंगफली की उन्नत खेती किस प्रकार करें? इस विषय में विस्तृत रूप से जानकारी दी जाएगी। 

मूंगफली की खेती के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु कौन-सी है

मूंगफली की खेती करने के लिए अर्ध-उष्ण जलवायु सबसे बेहतर मानी जाती है। इसकी खेती से बेहतरीन उत्पादन पाने के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की जरुरत होती है। मूंगफली फसल के लिए 50 से 100 सेंटीमीटर बारिश सर्वोत्तम मानी जाती है।

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मूंगफली की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

मूंगफली की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, मूंगफली की फसल से बेहतरीन पैदावार लेने के लिए बेहतरीन जल निकासी और कैल्शियम एवं जैव पदार्थो से युक्त बलुई दोमट मृदा सबसे उपयुक्त मानी गई है। इसकी खेती के लिए मृदा पीएच मानक 6 से 7 के मध्य होना आवश्यक है। 

मूंगफली फसल के लिए खेत की तैयारी

मूंगफली की खेती के लिए प्रथम जुताई मृदा पलटने वाले हल कर खेत को कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें। जिससे कि उसमें उपस्थित पुराने अवशेषों, खरपतवार एवं कीटों का खत्मा हो जाये। खेत की आखिरी जुताई करके मृदा को भुरभुरी बनाकर खेत को पाटा लगाकर समतल कर लें। खेत की अंतिम जुताई के दौरान 120 कि.ग्रा./एकड़ जिप्सम/फास्फोजिप्सम उपयोग करें। दीमक एवं अन्य कीड़ों से संरक्षण के लिए किनलफोस 25 किग्रा एवं निम की खली 400 किग्रा प्रति हैक्टेयर खेत में डालें। 

भारत के अंदर मूंगफली की खेती के लिए विभिन्न किस्में मौजूद हैं, जो कि निम्नलिखित हैं।

फैलने वाली वैरायटी:- आर जी-382 (दुर्गा), एम-13, एम ए-10, आर एस-1 और एम-335, चित्रा इत्यादि। 

मध्यम फैलने वाली वैरायटी:- आर जी-425, गिरनार-2, आर एस बी-87, एच एन जी-10 और आर जी-138, इत्यादि।

झुमका वैरायटी:- ए के-12 व 24, टी जी-37ए, आर जी-141, डी ए जी-24, जी जी-2 और जे एल-24 इत्यादि। 

मूंगफली के बीज की क्या दर होनी चाहिए

मूंगफली की गुच्छेदार प्रजातियों के लिए 100 कि.ग्रा. और फैलने वाली प्रजातियों के लिए 80 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर की दर से जरुरी होता है।  

मूंगफली के बीज को किस प्रकार उपचारित किया जाए

मूंगफली के बीज का समुचित ढंग से अंकुरण करने के लिए बीज को उपचारित अवश्य कर लें। कार्बोक्सिन 37.5% + थाइरम 37.5 % की 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से या 1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम + ट्राइकाडर्मा विरिडी 4 ग्रा./कि.ग्रा. के अनुरूप बीज को उपचारित किया जाए। 

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मूंगफली की बुआई किस प्रकार से की जाए

मूंगफली की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय जून के द्वितीय सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह में की जा सकती है। मूंगफली का बीजारोपण रेज्ड बेड विधि द्वारा करना चाहिए। इस विधि के अनुरूप बुवाई करने पर 5 कतारों के उपरांत एक-एक कतार खाली छोड़ते हैं। झुमका किस्म:- झुमका वैरायटी के लिए कतार से कतार का फासला 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की फासला 10 से.मी. आवश्यक होता है। विस्तार किस्मों के लिए:- विस्तार किस्मों के लिए कतार से कतार का फासला 45 से.मी. वहीं पौधे से पौधे का फासला 15 सें.मी. रखें। बीज को 3 से 5 से.मी. की गहराई में ही बोयें। 

मूंगफली की खेती में खरपतवार नियंत्रण

मूंगफली फसल में सत्यानाशी, कोकावा, दूधघास, मोथा, लकासा, जंगली चौलाइ, बनचरी, हिरनखुरी, कोकावा और गोखरू आदि खरपतवार प्रमुख रूप से उग जाते हैं। इनकी रोकथाम करने के लिए 30 और 45 दिन पर निदाई-गुड़ाई करें, जिससे कि खरपतवार नियंत्रण मूंगफली की जड़ों का फैलाव अच्छा होने के साथ मृदा के अंदर वायु का संचार भी हो जाता है। 

मूंगफली की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन

जायद की फसल के लिए सिचाई – बतादें कि प्रथम सिंचाई बुवाई के 10-15 दिन उपरांत, दूसरी सिंचाई बुवाई के 30-35 दिन के उपरांत एवं तीसरी फूल एवं सुई निर्माण के वक्त, चौथी सिचाई 50-75 दिन उपरांत मतलब फली बनने के समय तो वहीं पांचवी सिचाई फलियों की प्रगति के दौरान (75-90 दिन बाद) करनी जरूरी होती है। यदि मूंगफली की बुवाई वर्षाकाल में करी है, तब वर्षा के आधार पर सिंचाई की जाए। 

मूंगफली की फसल में लगने वाले कीट

रस चूसक/ पत्ती सुरंगक/ चेपा/ टिक्का/ रोजेट/फुदका/ थ्रिप्स/ दीमक/सफेद लट/बिहार रोमिल इल्ली और मूंगफली का माहू इत्यादि इसकी फसल में विशेष तौर पर लगने वाले कीट और रोग हैं। 

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मूंगफली की खुदाई हेतु सबसे अच्छा समय कौन-सा होता है

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि मूंगफली के पौधों की पत्तियों का रंग पीला होने लग जाए। फलियों के अंदर के टेनिन का रंग उड़ जाए और बीज का खोल रंगीन हो जाने के उपरांत खुदाई करें। खुदाई के दौरान खेत में हल्की नमी होनी चाहिए। बतादें, कि भंडारण और अंकुरण क्षमता स्थिर बनाये रखने के लिए खुदाई के उपरांत सावधानीपूर्वक मूंगफली को सुखाना चाहिए। मूंगफली का भंडारण करने से पूर्व यह जाँच कर लें कि मूंगफली के दानो में नमी की मात्रा 8 से 10% प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। 

मूंगफली की खेती में कितना खर्च और कितनी आय होती है

मूंगफली की खेती को बेहतरीन पैदावार देने वाली फसल मानी जाती है। इसकी खेती करने में लगभग 1-2 लाख रुपए तक की लागात आ जाती है। यदि किसानों के हित में सभी कुछ ठीक रहा तो प्रति हेक्टेयर तकरीबन 5-6 लाख की आमदनी की जा सकती है।

विश्व में नंबर वन श्रेणी की चावल की किस्में, भारत की किस्म का नाम भी शामिल

विश्व में नंबर वन श्रेणी की चावल की किस्में, भारत की किस्म का नाम भी शामिल

जैसा कि हम सब जानते हैं, कि बासमती चावल को विश्व का नंबर वन चावल माना जाता है। वहीं, इसके पश्चात इटली, पुर्तगाल, यूएस सहित जापान में उगाए जाने वाले चावल आते हैं। लोग चावल का उपभोग दाल, कढ़ी तो कभी बिरयानी के रूप में करते हैं। चावल का उपभोग तकरीबन भारत के हर घर में होता है। साथ ही, इसका इस्तेमाल विश्व भर के घरों में किया जाता है।

खबरों के मुताबिक, बासमती चावल को दुनिया में सबसे अच्छा चावल माना जाता है। भारत और पाकिस्तान में यह लंबे दाने वाला चावल उगाया जाता है। बासमती चावल का स्वाद सबसे हटकर है। पकाने पर यह एक-दूसरे के साथ चिपकता नहीं है और अलग रहता है। बासमती चावल को पुलाव, बिरयानी और सलाद में इस्तेमाल किया जाता है।

इटली में उगाए जाने वाला अर्बोरिया चावल

अब इसके उपरांत इटली में उत्पादित किए जाने वाला अर्बोरिया चावल आता है। इटली में उत्पादित किए जाने वाला मध्यम लंबे दाने वाला चावल है। साथ ही, इसकी नरम, चिपचिपी बनावट से अर्बोरिया चावल जाना जाता है। अर्बोरिया चावल पकाने पर मोटा और मलाईदार चावल बनता है। रिसोट्टो को बनाने के लिए सामान्य तोर पर अर्बोरिया चावल का इस्तेमाल किया जाता है। पुर्तगाल में लंबे दाने वाला चावल कैरोलिनो कहा जाता है। कैरोलिनो चावल अपनी नरम एवं मलाईदार बनावट से जाना जाता है। यह पकाने पर मोटा और मलाईदार चावल बनता है।  पुर्तगाली खाने, जैसे पोर्क बिफन और फ्राईड राइस, अक्सर कैरोलिनो चावल का इस्तेमाल करते हैं।

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जापान का चावल भी इसमें शामिल होता है

अरिजोना रॉयल चावल एक लंबे दाने वाला चावल है जो कि यूएस में उगाया जाता है। एरिजोना रॉयल चावल अपने नरम, मलाईदार बनावट के लिए मशहूर है। इसको पकाने पर मोटा और मलाईदार चावल बनता है। जापान में उगाए जाने वाला गोल, छोटे दाने वाला चावल जापानी सुशी चावल होता है। इसकी नरम और चिपचिपे बनावट से जापानी सुशी चावल जाना जाता है। ये पकाने पर मोटा और मलाईदार बनता है। जापानी सुशी चावल सुशी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है।

खुशखबरी : केंद्र सरकार ने गन्ना की कीमतों में किया इजाफा

खुशखबरी : केंद्र सरकार ने गन्ना की कीमतों में किया इजाफा

जानकारी के लिए बतादें कि उत्तर प्रदेश गन्ना की पैदावार के मामले में अव्वल नंबर का राज्य है। उत्तर प्रदेश के लाखों किसान गन्ने की खेती से जुड़े हुए हैं। फसल सीजन 2022- 23 में यहां पर 28.53 लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती की गई। गन्ने की खेती करने वाले कृषकों के लिए अच्छी खबर है। केंद्र सरकार ने द कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कास्ट्स एंड प्राइज की सिफारिश पर गन्ने की एफआरपी बढ़ाने के लिए मंजूरी दे दी है। इससे गन्ना उत्पादक किसानों में खुशी की लहर दौड़ गई है। कहा जा रहा है, कि केंद्र सरकार के इस निर्णय से लाखों किसानों को लाभ पहुंचेगा। विशेष कर उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र के किसान सबसे अधिक फायदा होगा। 

केंद्र सरकार ने गन्ने की कीमत में 10 रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि की

केंद्रीय कैबिनेट की बैठक के पश्चात केंद्र सरकार ने गन्ने की एफआरपी में इजाफा करने का फैसला किया है। सरकार द्वारा एफआरपी में 10 रुपये की वृद्धि की है। फिलहाल, गन्ने की एफआरपी 305 रुपये से इजाफा होकर 315 रुपये प्रति क्विंटल हो गई है। विशेष बात यह है, कि अक्टूबर से नवीन शक्कर वर्ष आरंभ हो रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार का यह निर्णय किसानों के लिए काफी ज्यादा फायदेमंद साबित होगा। साथ ही, कुछ लोग केंद्र सरकार के इस निर्णय को राजनीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है। लोगों का मानना है, कि अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे एफआरपी वृद्धि से उत्तर प्रदेश के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के किसानों को प्रत्यक्ष तौर पर फायदा होगा। 

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महाराष्ट्र में किसानों ने कितने लाख हेक्टेयर भूमि पर गन्ने की बिजाई की

जैसा कि हम जानते हैं, कि उत्तर प्रदेश गन्ना उत्पादन के मामले में पहले नंबर का राज्य है। यहां पर लाखों किसान गन्ने की खेती से जुड़े हुए हैं। फसल सीजन 2022- 23 के दौरान UP में 28.53 लाख हेक्टेयर भूमि में गन्ने की खेती की गई। साथ ही, महाराष्ट्र में कृषकों ने 14.9 लाख हेक्टेयर में गन्ने की बिजाई की थी। वहीं, सम्पूर्ण भारत में गन्ने का क्षेत्रफल 62 लाख हेक्टेयर है। अब ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है, कि भारत में गन्ने के कुल रकबे में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 46 प्रतिशत है। 

चीनी का उत्पादन कितना घट गया है

उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों की संख्या 119 है और 50 लाख से ज्यादा किसान गन्ने की खेती करते हैं। इस साल उत्तर प्रदेश में 1102.49 लाख टन गन्ने का उत्पादन हुआ था। चीनी मिलों में 1,099.49 लाख टन गन्ने की पेराई की गई। इससे मिलों ने 105 लाख टन चीनी का उत्पादन किया। बतादें, कि उत्तर प्रदेश के शामली जिले में सबसे अधिक गन्ने की उपज होती है। इस जिले में औसत 962.12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ने का उत्पादन होता है। इस वर्ष संपूर्ण भारत में चीनी का उत्पादन 35.76 मिलियन टन से कम होकर 32.8 मिलियन पर पहुंच चुका है।

अरंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसान भाइयों, अरंडी एक औषधीय वानस्पतिक तेल का उत्पादन करने वाली खरीफ की मुख्य व्यावसायिक फसल है। कम लागत में होने वाली अरंडी के तेल का व्यावसायिक महत्व होने के कारण इसको नकदी फसल भी कहा जा सकता है। किसान भाइयों अरंडी की फसल का आपको दोहरा लाभ मिल सकता है। इसकी फसल से पहले आप तेल निकाल कर बेच सकते हैं। उसके बाद बची हुई खली से खाद बना सकते हैं। इस तरह से आप अरंडी के खेती करके दोहरा लाभ कमा सकते हैं। आइये जानते हैं कि अरंडी की खेती कैसे की जाती है।

भूमि व जलवायु

अरंडी की फसल के लिए दोमट व बलुई दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है लेकिन इसकी फसल पीएच मान 5 से 6 वाली सभी प्रकार की मृदाओं में उगाई जा सकती है। अरंडी की फसल ऊसर व क्षारीय मृदा में नहीं की जा सकती। इसकी खेती के लिए खेत में जलनिकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये अन्यथा फसल खराब हो सकती है।
अरंडी की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में भी की जा सकती है। इसकी फसल के लिए 20 से 30 सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। अरंडी के पौधे की बढ़वार और बीज पकने के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। अरंडी की खेती के लिए अधिक वर्षा यानी अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इसकी जड़ें गहरी होतीं हैं और ये सूखा सहन करने में सक्षम होतीं हैं। पाला अरंडी की खेती के लिए नुकसानदायक होता है। इससे बचाना चाहिये।

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खेत की तैयारी कैसे करें

अरंडी के पौधे की जड़ें काफी गहराई तक जातीं हैं , इसलिये इसकी फसल के लिए गहरी जुताई करनी आवश्यक होती है। जो किसान भाई अरंडी की अच्छी फसल लेना चाहते हैं वे पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उसके बाद दो तीन जुताई कल्टीवेटर या हैरों से करें तथा पाटा लगाकर खेत को समतल बना लें। किसान भाइयों सबसे बेहतर तो यही होगा कि खेत में उपयुक्त नमी की अवस्था में जुताई करें। इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जायेगी और खरपतवार भी नष्ट हो जायेगा। इस तरह खेत को तैयार करके एक सप्ताह तक खुला छोड़ देना चाहिये। जिससे पूर्व फसल के कीट व रोग धूप में नष्ट हो सकते हैं ।

अरंडी की मुख्य उन्नत किस्में

अरंडी की मुख्य उन्नत किस्मों मे जीसीएच-4,5, 6, 7 व डीसीएच-32, 177 व 519, ज्योति, हरिता, क्रांति किरण, टीएमवी-6, अरुणा, काल्पी आदि हैं। Aranki ki plant

कब और कैसे करें बुआई

अरंडी की फसल की बुआई अधिकांशत: जुलाई और अगस्त में की जानी चाहिये। किसान भाई अरंडी की फसल की खास बात यह है कि मानसून आने पर खरीफ की सभी फसलों की खेती का काम निपटाने के बाद अरंडी की खेती आराम से कर सकते हैं। अरंडी की बुआई हल के पीछे हाथ से बीज गिराकर की जा सकती है तथा सीड ड्रिल से भी बुआई की जा सकती है। सिंचाई वाले क्षेत्रोंं अरंडी की फसल की बुआई करते समय किसान भाइयों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि लाइन से लाइन की दूरी एक मीटर या सवा मीटर रखें और पौधे से पौधे की दूरी आधा मीटर रखें तो आपकी फसल अच्छी होगी। असिंचित फसल के लिए लाइन और पौधों की दूरी कम रखनी चाहिये। इस तरह की खेती के लिए लाइन से लाइन की दूरी आधा मीटर या उससे थोड़ी ज्यादा होनी चाहिये और पौधों से पौधों की दूरी भी लगभग इतनी ही रखनी चाहिये।

कितना बीज चाहिये

किसान भाइयों अरंडी की फसल के लिए बीज की मात्रा , बीज क आकार और बुआई के तरीके और भूमि के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। फिर भी औसतन अरंडी की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। छिटकवां बुआई में बीज अधिक लगता है यदि इसे हाथ से एक-एक बीज को बोया जाता है तो प्रतिहेक्टेयर 8 किलोग्राम के लगभग बीज लगेगा। किसान भाइयों को चाहिये कि अरंडी की अच्छी फसल लेने के लिए उन्नत किस्म का प्रमाणित बीज लेना चाहिये। यदि बीज उपचारित नहीं है तो उसे उपचारित अवश्य कर लें ताकि कीट एवं रोगों की संभावना नहीं रहती है। भूमिगत कीटों और रोगों से बचाने के लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रतिकिलोग्राम पानी से घोल बनाकर बीजों को बुआई से पहले  भिगो कर उपचारित करें।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

किसान भाइयों खाद और उर्वरक काफी महंगी आती हैं इसलिये किसी भी तरह की खेती के लिए आप अपनी भूमि का मृदा परीक्षण अवश्य करवा लें और उसके अनुसार आपको खाद और उर्वरक प्रबंधन की अच्छी जानकारी मिल सकेगी। इससे आपका पैसा व समय दोनों ही बचेगा। खेती की लागत कम आयेगी। इसी तरह अरंडी की खेती के लिए जब आप खाद व उर्वरकों का प्रबंधन करें तो मिट्टी की जांच के बाद बताई गयी खाद व उर्वरक की मात्रा का प्रयोग करें। अरंडी की खेती के लिए उर्वरक का अच्छी तरह से प्रबंधन करना होता है। अच्छे खाद व उर्वरक प्रबंधन से अरंडी के दानों में तेल का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है। इसलिये इस खेती में किसान भाइयों को कम से कम तीन बार खाद व उवर्रक देना होता है। अरंडी चूंकि एक तिलहन फसल है, इसका उत्पादन बढ़ाने व बीजों में तेल की मात्रा अधिक बढ़ाने के लिए बुआई से पहले 20 किलोगाम सल्फर को 200 से 250 किलोग्राम जिप्सम मिलाकर प्रति हेक्टेयर डालना चाहिये। इसके बाद अरंडी की सिंचित  खेती के लिए 80 किलो ग्राम नाइट्रोजन और 40 किलो फास्फोरस  प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिये तथा असिंचित खेती के लिए 40 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल किया जाना चाहिये। इसमें से खेत की तैयारी करते समय आधा नाइट्रोजन और आधा किलो फास्फोरस का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालना चाहिये। शेष आधा भाग 30 से 35  दिन के बाद वर्षा के समय खड़ी फसल पर डालना चाहिये। Arandi ki kheti

सिंचाई प्रबंधन

अरंडी खरीफ की फसल है, उस समय वर्षा का समय होता है। वर्षा के समय में बुआई के डेढ़ से दो महीने तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। इस अवधि में पानी देने से जड़ें कमजोर हो जाती है, जो सीधा फसल पर असर डालती है। क्योंकि अरंडी की जड़ें गहराई में जाती हैं जहां से वह नमी प्राप्त कर लेतीं हैं। जब अरंडी के पौधों की जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो जायें और जमीन पर अच्छी तरह से पकड़ बना लें और जब खेती की नमी आवश्यकता से कम होने लगे तब पहला पानी देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक 15 दिन में वर्षा न होने पर पानी देना चाहिये। यदि सिंचाई के लिए टपक पद्धति हो तो उससे इसकी सिंचाई करना उत्तम होगा।

खरपतवार प्रबंधन

अरंडी की फसल में खरपतवार का प्रबंधन शुरुआत में ही करना चाहिये। जब तक पौधे आधे मीटर के न हो जायें तब तक समय-समय पर खरपतवार को हटाना चाहिये तथा गुड़ाई भी करते रहना चाहिये। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम पेंडीमेथालिन को 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के दूसरे या तीसरे दिन छिड़काव करने से भी खरपतवार का नियंत्रण होता  है। लेकिन 40 दिन बाद एक बार अवश्य ही निराई गुड़ाई करवानी चाहिये।

कीट-रोग एवं उपचार

अरंडी की फसल में कई प्रकार के रोग एवं कीट लगते हैं। उनका समय पर उपचार करने से फसल को बचाया जा सकता है। आईये जानते हैं कि कौन से कीट या रोग का किस प्रकार से उपचार किया जाता है:- 1. जैसिड कीट: अरंडी की फसल में जैसिड कीट लगता है। इसका पता लगने पर किसान भाइयों को मोनोक्रोटोफाँस 36 एस एल को एक लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव कर देना चाहिये। इससे फसल का बचाव हो जाता है। 2. सेमीलूपर कीट: इसकीट का प्रकोप सर्दियों में अक्टूबर-नवम्बर के बीच होता है। इस कीट को नियंत्रित करने के लिए 1 लीटर क्यूनालफॉस 25 ईसी , लगभग 800 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रतिहेक्टेयर में फसल पर छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण हो जाता है। 3. बिहार हेयरी केटरपिलर: यह कीट भी सेमीलूपर की तरह सर्दियों में लगता है और इसके नियंत्रण के लिए क्यूनालफॉस का घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिये। 4. उखटा रोग: उखटा रोग से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा विरिडि 10 ग्राम प्रतिकिलोग्राम बीज का बीजोपचार करना चाहिये तथा 2.5 ट्राइकोडर्मा को नम गोबर की खाद के साथ बुवाई से पूर्व खेत में डालना अच्छा होता है।

पाले सें बचाव इस तरह करें

अरंडी की फसल के लिए पाला सबसे अधिक हानिकारक है। किसान भाइयों को पाला से फसल को बचाने के लिए भी इंतजाम करना चाहिये। जब भी पाला पड़ने की संभावना दिखाई दे तभी किसान भाइयों को एक लीटर गंधक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रतिहेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करा चाहिये। यदि पाला पड़ जाये और फसल उसकी चपेट में आ जाये तो 10 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से यूरिया के साथ छिड़काव करें। फसल को बचाया जा सकता है।

कब और कैसे करें कटाई

अरंडी की फसल को पूरा पकने का इंतजार नहीं करना चाहिये। जब पत्ते व उनके डंठल पीले या भूरे दिखने लगें तभी कटाई कर लेनी चाहिये क्योंकि फसल के पकने पर दाने चिटक कर गिर जाते हैं। इसलिये पहले ही इनकी कटाई करना लाभदायक रहेगा। अरंडी की फसल में पहली तुड़ाई 100 दिनों के आसपास की जानी चाहिये। इसके बाद हर माह आवश्यकतानुसार तुड़ाई करना सही रहता है।

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पैदावार

अरंडी की फसल सिंचित क्षेत्र में अच्छे प्रबंधन के साथ की जाये तो प्रतिहेक्टेयर इसकी पैदावार 30 से 35 क्विंटल तक हो सकती है जबकि  असिंचित क्षेत्र में 15 से 23 क्विंटल तक प्रतिहेक्टेयर पैदावार मिल सकती है।
टिश्यू कल्चर तकनीक से इस राज्य में केले की खेती हो रही है

टिश्यू कल्चर तकनीक से इस राज्य में केले की खेती हो रही है

किसान भाई टिश्यू कल्चर तकनीक की सहायता से केले उगा सकते हैं। इससे कृषकों की आमदनी में काफी इजाफा होगा। साथ ही, फसल की गुणवत्ता भी अच्छी होगी। भारत के अंदर प्रमुख तोर पर बड़े पैमाने पर केले की खेती की जाती है। सब्जी से लगाकर चिप्स निर्मित करने तक केले की बेहद मांग है। अब ऐसी स्थिति में किसान भाई इसकी खेती कर काफी शानदार मुनाफा हांसिल कर सकते हैं। परंतु, किसान भाई केला उत्पादन के लिए टिश्यू कल्चर तकनीक का उपयोग कर सकते हैं।

टिश्यू कल्चर तकनीक से केला उत्पादन 

टिश्यू कल्चर तकनीक से
केले की खेती करना एक बेहद फायदेमंद व्यवसाय सिद्ध हो सकता है। इस तकनीक के माध्यम से निर्मित किए गए पौधे रोगमुक्त और एक जैसे ही होते हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता के साथ-साथ पैदावार में सुधार होता है। इसमें पौधे के एक छोटे टुकड़े को एक खास माध्यम में उत्पादित किया जाता है। इस माध्यम में पोषक तत्व एवं हार्मोन होते हैं जो पौधे की कोशिकाओं को बड़ी तीव्रता से विभाजित करने में सहयोग करते हैं। कुछ ही, माह में पौधे पर्याप्त ढ़ंग से विकसित हो जाते हैं एवं उन्हें खेत के अंदर लगाया जा सकता है। ये भी पढ़ें: केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

बिहार में टिश्यू कल्चर तरीके से खेती हो रही है 

बिहार राज्य के कृषक भाई भी टिश्यू कल्चर ढ़ंग से केले का उत्पादन कर रहे हैं, जिससे बिहार में केला उत्पादन में गुणवत्ता के साथ आमदनी बढ़ोतरी हो रही है। केले के पौधे का उत्पादन बेहतर तरीके से सूखा हुआ और रेतीली दोमट मिट्टी में सबसे शानदार होता है। मृदा को अच्छे तरीके से ढीला करें और खरपतवार को पूरी तरह से हटा दें। 

टिश्यू कल्चर तकनीक के क्या लाभ होते हैं ?

  • टिश्यू कल्चर तकनीक से निर्मित किए गए पौधे रोग से मुक्त होते हैं, जिससे फसल को बीमारियों से संरक्षण देने में सहयोग मिलता है।
  • टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार किए गए पौधे एक जैसे आकार के होते हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता में काफी सुधार होता है।
  • टिश्यू कल्चर तकनीक से निर्मित किए गए पौधे आम तरीके से तैयार किए गए पौधों के मुकाबले में शीघ्र फल देने लगते हैं।
  • टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार किए गए पौधे परंपरागत तरीके से तैयार किए गए पौधों के मुकाबले में ज्यादा उत्पादन देते हैं।
कैसे करें पैशन फल की खेती

कैसे करें पैशन फल की खेती

पैशन फल अपने स्वाद पौष्टिकता और औषधीय गुणों के लिए विश्व भर में जाना जाता है। सर्वप्रथम यह फल ब्राजील में उगाया गया यहां से इसका प्रचार-प्रसार अफ्रीका तथा एशियाई देशों में हुआ। इस फल की पूरे विश्व में 500 प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत में इस फल की मुख्य दो प्रजातियां पाई जाती हैं। 1. पैसीफ्लोरा यूडिलिस इस प्रजाति के फलों का रंग शुरुआती दौर में हरा एवं आकार गोल होता है । पकने पर इसका रंग बैंगनी तथा स्वाद में हल्का अम्लीयता होता है । फल में रस की मात्रा अधिक और बीजों का रंग हल्का काला होता है। 2. पैसीफ्लोरा फ्लेवीकॉरपा इस प्रजाति के पौधों के फलों का रंग पीला होता है। इसका आकार बैंगनी रंग के फलों की अपेक्षा बड़ा होता है। इस प्रजाति के फलों में रस की मात्रा कम तथा फलों का स्वाद अम्लीय होता है।

भारत में पैशन फल मुख्यत

भारत में पैशन फल केरल, तमिलनाडु, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, आंध्र प्रदेश हिमाचल प्रदेश तथा पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय में होता है। उत्तराखंड के शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में भी इसकी
बागवानी सीमित क्षेत्र में होने लगी है। विडंबना यह है की महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर फल होते हुए भी इसकी नियमित बागवानी हमारे देश में नहीं हो पा रही है। देश के कुछ प्रदेशों में ही इसकी बागवानी के प्रयास किए जा रहे हैं। केंद्रीय शीतोष्ण बागवानी संस्थान के शोधकर्ताओं के अनुसार किसानों को इस की बागवानी के बारे में पूरी जानकारी का ना होना इसकी खेती के विस्तार में बाधक है ।

जलवायु

पैशन फल का पौधा एक बेल युक्त पौधा होता है जिसकी लंबाई 15 से 20 फुट तक हो सकती है। इसे किसी भी जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है लेकिन अर्ध शुष्क जलवायु इसके लिए उपयुक्त पाई गई है। इसकी बागवानी अट्ठारह सौ मीटर ऊंचाई तक तथा 15 - 40 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।

मृदा तथा भूमि

इस फल की खेती के लिए हल्की या भारी बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। इस फल की बागवानी के लिए पीएच मान 6:30 से 7:30 होना चाहिए। जिस मिट्टी में अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ तथा पोषक तत्व हो वह मिट्टी इसके लिए उपयुक्त होती है। यदि मिट्टी में अम्लीयता अधिक हो तो उसमें चूना मिलाकर से खेती योग्य बनाया जा सकता है।

उर्वरक

फलों के बड़े आकार तथा अच्छी पैदावार के लिए समय-समय पर उर्वरकों का प्रयोग करते रहना चाहिए ।उर्वरकों में जैविक खाद के रूप में गोबर की साड़ी खाद को समय-समय पर निश्चित अनुपात में डालना चाहिए ।अगर जैविक खाद उपलब्ध ना हो तो रासायनिक खादों का सही तथा निश्चित अनुपात में प्रयोग होना चाहिए । नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश को 2-1-4 के अनुपात में डालना चाहिए। इसके अलावा अन्य पोषक तत्वों का भी निश्चित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए, जिससे पौधों की वृद्धि तथा अच्छी पैदावार मिलती रहे। यह भी पढ़ें: सामान्य खेती के साथ फलों की खेती से भी कमाएं किसान: अमरूद की खेती के तरीके और फायदे

सिंचाई

इस फल की अच्छी पैदावार के लिए इसमें समय समय पर सिंचाई करनी चाहिए। खसकर जब फल परिपक्व हो रहे हों उस समय सिंचाई करते रहने से पौधे को पोषक तत्व मिलते रहते हैं तथा फलों का आकार भी ठीक रहता है। यदि समय पर सिंचाई नहीं की जाती तो पौधे को उचित पोषक तत्व नहीं मिलते और फलों का आकार भी परिपक्व नहीं हो पाता।

पौधों की सफाई व छंटाई

पौधों की सफाई का कार्य नियमित अंतराल पर करते रहना चाहिए जिससे पौधों की उचित वृद्धि होती रहे तथा पौधे उत्तम पैदावार देते रहें। पौधों की सधाई का कार्य फल तोड़ाई के बाद करना चाहिए तथा सूखी और बीमारियों से ग्रसित शाखा या बैलों को काट देना चाहिए। सफाई का कार्य जाड़े के मौसम में करना चाहिए।

नर्सरी तैयार करना

पैशन फल के पौधे मोक्षित है बीज द्वारा तैयार किए जाते हैं। बीजों की बुवाई फलों से निकलने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए। बुवाई के लिए पौधशाला की ऊंचाई 15 से 20 सेंटीमीटर तथा लंबाई 1 से 10 सेंटीमीटर होनी चाहिए। 20 को आधे से 1 इंच तक मिट्टी में दबाना चाहिए। जब पौधे की लंबाई 10 इंच की हो जाए तब इसे पौधशाला से निकाल कर दूसरी जगह रोहित कर देना चाहिए। अन्य विधियों में रोपण ग्राफ्टिंग या कटिंग विधि से भी पर तैयार की जा सकती है। ग्राफ्टिंग रोपण विधि में जब कलिका तैयार हो जाए तो इसे मूल ग्रंथ से काटकर पुराने बीजू पौधे पर सावधानीपूर्वक चढ़ाना चाहिए। 70 से 80% सफलता प्राप्त की जा सकती है।

फलों की तोड़ाई

पैशन फलों की तोड़ाई फल का रंग जब हरे रंग से गहरे बैंगनी रंग का हो जाता है तो यह पक चुका होता है तथा फल को इस समय तोड़ लेना चाहिए। इसका फल परागण के 70 से 80 दिनों के बाद पक जाता है। पैशन फल वर्ष में दो बार तैयार होता है। पहली बार मार्च से मई तक तथा दूसरी बार अगस्त से दिसंबर तक पूर्ण विकसित पौधे से साल में 25 से 30 किलोग्राम फल प्राप्त किया जा सकता है।

भंडारण एवं विपणन

फलों की तोड़ाई के पश्चात सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया भंडारण की होती है। पके फलों को ज्यादा समय तक सामान्य तापमान पर भंडारित किया जा सकता है । इस फल के भंडारण के लिए कोई विशेष प्रबंध नहीं करना होता। पैशन फल शीघ्र खराब ना हो इसके लिए फल को पकने के बाद तोड़ लेना चाहिए। इन्हें आकर्षक दिखाने के लिए पॉलिथीन की थैलियों में रख देना चाहिए तथा इसे 2 सप्ताह तक इस अवस्था में रखा जा सकता है। इस प्रकार यह फल अपनी उत्पादकता पोषक तत्व की प्रचुरता सरल बागवानी से काश्तकारों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जरूरत इस बात की है कि किसान भाइयों के बीच इसका सरकारी व गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रचार प्रसार किया जाए।
ग्वार की खेती कैसे की जाती है, जानिए सम्पूर्ण जानकारी के बारे में 

ग्वार की खेती कैसे की जाती है, जानिए सम्पूर्ण जानकारी के बारे में 

ग्वार अब भोजन, फार्मास्यूटिकल्स और तेल जैसे विभिन्न उद्योगों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। भारत में राजस्थान ग्वार का प्रमुख उत्पादक है जिसके बाद हरियाणा, गुजरात और पंजाब का स्थान आता है। 

ग्वार उत्पादन अब अन्य राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु तक भी बढ़ गया है। ग्वार का प्रमुख उत्पाद ग्वार गम है जो खाद्य उत्पादों में इस्तेमाल होने वाला एक प्राकृतिक गाढ़ा एजेंट है। 

भारत से प्रमुख निर्यात में से एक ग्वार गम है, प्रक्रिया में कुछ और अनुसंधान और विकास और बेहतर तकनीक के साथ, यह किसानों के लिए अत्यधिक लाभदायक होगा।

ग्वार की फसल का महत्व 

ग्वार एक दलहनी फसल है, 'और दलहनी फसलों के मुकाबले ग्वार को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है। ग्वार फली आमतौर पर चारे, बीज और सब्जी के उद्देश्य से उगाई जाती है। 

फसल से गोंद का उत्पादन होता है जिसे ग्वार गम कहा जाता है और विदेशों में निर्यात किया जाता है। इसके बीजों में 18% प्रोटीन और 32% रेशा होता है और भ्रूणपोष में लगभग 30-33% गोंद होता है।  

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ग्वार की फसल के लिए उपयुक्त जलवायु और तापमान 

ग्वार धुप में पनपने वाला पौधा है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की शुष्क भूमि की फसलें उच्च तापमान को सहन कर सकती हैं। उचित वृद्धि के लिए इसे 25° से 30°C के बीच मिट्टी के तापमान की आवश्यकता होती है। 

यह पाले के प्रति संवेदनशील है। यह निश्चित रूप से उत्तर भारत में खरीफ मौसम की फसल है, लेकिन कुछ किस्में मार्च से जून के दौरान बसंत-ग्रीष्म फसल के रूप में और अन्य किस्में जुलाई से नवंबर के दौरान दक्षिण भारतीय जलवायु परिस्थितियों में वर्षा ऋतु की फसल के रूप में उगाई जाती हैं।  

यह गर्म जलवायु को तरजीह देने वाली फसल है और गर्मियों के दौरान बारानी क्षेत्रों में अच्छी तरह से बढ़ती है। फसल 30 -40 सेमी वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में अच्छी तरह से बढ़ती है। भारी बारिश, जलभराव की स्थिति, नाइट्रोजन फिक्सिंग बैक्टीरिया गतिविधि को कम करती है। 

ग्वार की फसल किस प्रकार की मिट्टी में अच्छी उपज देती है  

ग्वार फली सभी प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है लेकिन मध्यम बनावट वाली बलुई दोमट मिट्टी इसके विकास के लिए बेहतर होती है। भरपूर धूप के साथ मध्यम बारिश फसल की बेहतर वृद्धि में मदद करती है। 

पौधा छाया को सहन नहीं कर सकता है और वनस्पति विकास के लिए लंबे दिन की स्थिति और फूल आने के लिए कम तापमान वाले दिनों की आवश्यकता होती है। 

ग्वार की फसल एक अच्छी जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी में अच्छी उपज देती है। यह 7.5 -  8.0के बीच पीएच के साथ खारी और मध्यम क्षारीय मिट्टी को सहन कर सकता है। 

फसल की बुवाई के लिए भूमि की तैयार

रबी की फसल की कटाई के बाद मोल्ड बोर्ड हल से एक गहरी जुताई के बाद, डिस्क हैरो से 1 - 2 जुताई या कल्टीवेटर चलाकर पाटा लगाया जाता है। अच्छी जल निकासी सुविधा के लिए उचित रूप से समतल खेत की आवश्यकता होती है। 

ग्वार की उन्नत किस्में 

FS-277:- यह किस्म CCSHAU, हिसार द्वारा स्थानीय सामग्री से चयन द्वारा विकसित की गई थी और पूरे भारत में खेती के लिए अनुशंसित है। 

एचएफजी-119:- यह किस्म सीसीएसएचएयू, हिसार द्वारा चयन द्वारा विकसित की गई थी और भारत के पूरे ग्वार उत्पादक क्षेत्र में खेती के लिए अनुशंसित है। फसल 130-135 दिनों में काटी जाती है। यह बेहद सूखा सहिष्णु, गैर-बिखरने वाली और अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट किस्म के लिए प्रतिरोधी है।  

गुआरा-80:- यह किस्म पीएयू, लुधियाना द्वारा इंटरवैराइटल क्रॉस (एफएस 277 × स्ट्रेन नं. 119) से विकसित की गई, यह देश के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में खेती के लिए अनुशंसित है। यह 26.8 टन/हेक्टेयर हरा चारा और 8 क्विंटल/एकड़ बीज पैदा करता है। 

HG-182:- इस किस्म को CCSHAU, हिसार द्वारा आनुवंशिक स्टॉक (परिग्रहण HFC-182) से एकल पौधे के चयन से विकसित किया गया था। यह 110-125 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है  

मारू ग्वार (2470/12):- इस किस्म को काजरी, जोधपुर में एनबीपीजीआर, नई दिल्ली द्वारा आपूर्ति की गई जर्मप्लाज्म सामग्री की मदद से विकसित किया गया था। यह किस्म दो प्रकार की है जो पश्चिमी राजस्थान के लिए उपयुक्त है। 

HFG-156:- इस किस्म को हरियाणा में खेती के लिए CCSHAU, हिसार द्वारा विकसित किया गया था। यह 35 टन/हे. हरे चारे की उपज देने वाली लंबी, शाखित किस्म है।  

बुंदेल ग्वार-1:- इसे आईजीएफआरआई, झांसी में एकल पौधे चयन के माध्यम से विकसित किया गया था। यह 50-55 दिनों में पोषक चारा उपलब्ध कराती है। यह किस्म एपीफाइटोटिक क्षेत्र परिस्थितियों में पत्ती झुलसा रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी है। यह आवास प्रतिरोधी है, उर्वरकों के प्रति उत्तरदायी है, सूखा सहिष्णु है।  

ग्वार क्रांति (आरजीसी-1031):- यह किस्म एआरएस, दुर्गापुरा में विकसित की गई थी और यह आरजीसी-936 × आरजीसी-986/पी-10 के बीच के इंटरवैरिएटल क्रॉस का व्युत्पन्न है। यह राजस्थान राज्य में खेती के लिए अनुशंसित है।

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बीज की बुवाई कैसे की जाती है ?

5 -6 किलोग्राम बीज एक एकड़ में बुवाई करने के लिए पर्याप्त है।  फसल जुलाई के प्रथम सप्ताह से 25 जुलाई तक बोई जाती है। 

जहां सिंचाई की सुविधा हो वहां फसल जून के अंतिम सप्ताह में या मानसून आने के बाद भी उगाई जा सकती है। गर्मी के दिनों में इसे मार्च के महीने में उगाया जा सकता है। बुवाई करें समय पंक्ति से पंक्ति की दुरी 45 cm रखें और पीज से बीज की दुरी 30 cm रखें।    

बीज उपचार 

फसल को मिट्टी जनित रोग से बचाने के लिए बीज को 2 ग्राम थीरम और 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज से उपचारित किया जा सकता है। बीजों को बोने से 2-3 दिन पहले उपचारित किया जा सकता है। 

कवकनाशी बीज उपचार के बाद बीज को उपयुक्त राइजोबियम कल्चर @ 600 ग्राम / 12-15 किलोग्राम बीज के साथ टीका लगाया जाता है। 

फसल में सिंचाई प्रबंधन 

वैसे तो ग्वार की फसल को अधिक पानी की आश्यकता नहीं होती है। क्योंकी ये एक खरीफ की फसल है। इस मौसम में समय समय  पर बारिश होती रहती है जिससे फसल में पानी की कमी पूरी हो जाती है। 

अगर लंबे समय तक बारिश नहीं होती है तो फसल में सिंचाई अवश्य करें। फसल में जीवन रक्षक सिंचाई विशेष रूप से फूल आने और बीज बनने की अवस्था में दी जानी चाहिए।

फसल में उर्वरक और पोषक तत्व प्रबंधन

बुवाई से कम से कम 15 दिन पहले लगभग 2.5 टन कम्पोस्ट या FYM का प्रयोग करना चाहिए। एफवाईएम या कम्पोस्ट का प्रयोग मिट्टी की जल धारण क्षमता में सुधार करने और पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए उपयोगी है।   

दलहनी फसल होने के कारण ग्वार फली की प्रारंभिक वृद्धि अवधि के दौरान शुरुआती खुराक के रूप में नाइट्रोजन की थोड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है। ग्वार की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 10-15 किग्रा नाइट्रोजन और 20 किग्रा फास्फोरस की आवश्यकता होती है। 

नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय देना चाहिए। 

उर्वरक को बीज से कम से कम 5 सेंटीमीटर नीचे रखना चाहिए। उपयुक्त राइजोबियम स्ट्रेन और फॉस्फोरस सॉल्यूबिलाइजिंग बैक्टीरिया (PSB) के साथ बीजों का उपचार फसल की उपज बढ़ाने के लिए फायदेमंद होता है। 

फसल में खरपतवार प्रबंधन 

ग्वार फली में बुवाई के 20-25 और 40-45 दिनों के बाद दो निराई - गुढ़ाई फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए पर्याप्त होती है। हालांकि, कभी-कभी श्रम उपलब्ध न होने के कारण रासायनिक खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।  

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फसल के अंकुरण से पहले पेंडीमिथालिन 250 gram/एकड़  ए.आई. उभरने से पहले छिड़काव करें और फसल के उभरने के बाद  उपयोग के लिए इमेज़ेटापायर 20 ग्राम/एकड़  ए.आई. 150 लीटर पानी में बुवाई के 20-25 दिनों पर दिया जाता है जो खरपतवार नियंत्रण के लिए उपयुक्त होता है।

फसल की कटाई 

दाने वाली फसल के लिए, कटाई तब की जाती है जब पत्तियाँ सूख जाती हैं और 50% फली भूरी और सूखी हो जाती है। कटाई के बाद फसल को धूप में सुखाना चाहिए फिर थ्रेशिंग मैन्युअल रूप से या थ्रेशर द्वारा किया जाता है। 

चारे की फसल के लिए, फसल को फूल अवस्था में काटते समय। एक एकड़ में 6 - 8 क्विंटल बीज की उपज होती है। एक एकड़ में 100 क्विंटल तक हरे चारे की उपज हो जाती है। 

मिठास से भरपूर आम की इस सदाबहार प्रजाति से बारह महीने फल मिलेंगे

मिठास से भरपूर आम की इस सदाबहार प्रजाति से बारह महीने फल मिलेंगे

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि आप आम की थाईलैंड वैराइटी यानी कि थाई बारहमासी किस्म से किसान हर सीजन में बेहतरीन उत्पादन अर्जित कर सकते हैं। यह आम खाने में काफी मीठा होता है। आम की थाईलैंड प्रजाति से किसान वर्ष भर में तीन बार पैदावार हाँसिल कर सकते हैं। इस प्रजाति की विशेषता यह है, कि खेत में लगाने के दो वर्ष में ही फल मिलना प्रारंभ हो जाता है। फलों के राजा आम की खेती से किसान बेहतरीन आमदनी प्राप्त करते हैं। सामान्य तौर पर इसकी खेती से किसान वर्ष में एक ही बार फल अर्जित कर पाते हैं। परंतु, आज के समय में बाजार में ऐसी विभिन्न प्रकार की आम की उन्नत प्रजातियां आ गई हैं, जिनसे कृषक वर्षभर में आम की शानदार उपज हांसिल कर सकते हैं। दरअसल, कुछ दिन पहले ही पंतनगर में आयोजित अखिल भारतीय किसान मेले में आम की बारहमासी किस्म की प्रदर्शनी लगाई गई। ऐसा कहा जा रहा है, कि आम की यह किस्म वर्ष में तीन बारी आम की बेहतरीन उत्पादन देने में समर्थ है। दरअसल, आज हम आम की उन किस्मों की बात कर रहे हैं, उसका नाम थाईलैंड किस्म का थाई बारहमासी मीठा आम है। इस किस्म की विशेषता यह है, कि थाई बारहमासी मीठा आम कम समयांतराल मतलब कि दो वर्षों में ही फल देना शुरू कर देता है। वहीं, यदि हम थाईलैंड किस्म के इस आम की मिठास पर ध्यान दें, तो यह अन्य आमों की तुलना में काफी मीठा होता है।

आम कितने सालों में आने शुरू हो जाऐंगे

थाईलैंड वैराइटी की थाई बारहमासी मीठा आम की यह प्रजाति यदि आप खेत में लगाते हैं। इसकी सही ढ़ंग से देखभाल करते हैं, तो किसान इसे लगभग दो वर्ष में ही आम के फल अर्जित कर सकते हैं। वर्तमान में आपके दिमाग में आ रहा होगा कि शीघ्रता से आम देने की यह किस्म स्वास्थ्य व मिठास के संबंध में शायद खराब होगी। बतादें, कि यह किस्म स्वास्थ्य एवं मिठास दोनों के संबंध में ही अव्वल है।

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आम के फूल व फलन को मार्च में गिरने से ऐसे रोकें: आम के पेड़ के रोगों के उपचार वैज्ञानिकों के अनुसार, आम की यह किस्म विषाणु युक्त मानी गई है। इसके पेड़ में हर एक मौसम में किसी भी प्रकार के वायरस का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता है। साथ ही, किसान आम की इस प्रजाति से पांच वर्ष के उपरांत तकरीबन 50 किलो तक आम की फसल अर्जित कर सकते हैं।

आम की इस किस्म को किसने विकसित किया है

मीडिया खबरों के अनुसार, आम की यह थाईलैंड किस्म बांग्लादेश के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई है। इस किस्म को भिन्न-भिन्न इलाकों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। कुछ राज्यों में थाईलैंड वैराइटी किस्म को काटी मन के नाम से भी जाना जाता है। आम की थाईलैंड किस्म की खेती पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और गुजरात के किसानों द्वारा सबसे ज्यादा की जाती है।
हर सब्जी के साथ उपयोग होने वाले आलू को घर पर उगाने का आसान तरीका क्या है?

हर सब्जी के साथ उपयोग होने वाले आलू को घर पर उगाने का आसान तरीका क्या है?

कोई भी व्यक्ति अपने घर में आलू का उत्पादन करके काफी धन की बचत कर सकता है। ये एक ऐसी सब्जी है, जिसका इस्तेमाल प्रत्येक सब्जी में किया जाता है। आलू एक ऐसी सब्जी है, जिसका उपयोग हर घर में किया जाता है। ये भारत के घरों में सबसे ज्यादा इस्तेमाल में आने वाली सब्जी भी है। आलू की सब्जी घरों में विभिन्न प्रकार से बनती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आप इसे घर में भी उगा सकते हैं। इसे घर पर लगाने के बाद बाजार से आलू खरीदकर लाने का झंझट ही खत्म हो जाएगा, आइए जानते हैं इसे घर में लगाने का आसान तरीका। 

आलू उगाने के समय इन बातों का विशेष ध्यान रखें 

यदि आप अपने घर पर ही आलू उगाना चाहते हैं, तो आप अच्छे बीजों का चुनाव करें। आलू उगाने के लिए आप सर्टिफाइड बीजों का ही चयन करें। इसके अतिरिक्त आप आलू को भी बीज के तोर पर उपयोग कर सकते हैं। अगर आप आलू का उपयोग कर रहे हैं, तो आप सफेद बड्स अथवा फिर स्प्राउट्स नजर आने वाले बीजों को इस्तेमाल में लें। इस कारण से शीघ्र ही पौधे निकल आऐंगे। ये भी पढ़ें:
आलू की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी आलू या फिर किसी भी बाकी फसल की खेती में मृदा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके लिए आप शानदार मृदा लें उसमें बेहतर ढंग से खाद डालें। आप इसके लिए 50 प्रतिशत मिट्टी, 30 प्रतिशत वर्मी कम्पोस्ट एवं 20 फीसदी कोको पीट का उपयोग कर सकते हैं। आप इन समस्त चीजों को मिलाकर एक बड़े गमले में लगा दें।

आलू को घर पर बेहतर ढ़ंग से उगाऐं 

आलू के अंकुरों को गमले, कंटेनर अथवा क्यारी में मृदा के नीचे 5-6 इंच नीचे दबा दें। ऊपर से सही ढक कर पानी डाल दें। आप बाजार में बड़े गमले, ग्रो बैग, घर पर कोई पुरानी बाल्टी अथवा कंटेनर का भी उपयोग कर सकते हैं। आलू के अंकुरों को गमले, कंटेनर या क्यारी में मृदा के नीचे 5-6 इंच नीचे दबा दें। ऊपर से सही तरीके से पानी डाल दें। आप बाजार में उपलब्ध ग्रो बैग, बड़े गमले, घर पर कोई पुरानी बाल्टी अथवा कंटेनर भी उपयोग कर सकते हैं।